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Tuesday, 12 May 2009

वास्तविक सुख...

काशी के एक संत अपना भव्य आश्रम बनाने के लिए धन इकट्ठा करने निकले। घूमते-घूमते एक दिन वह सूफी संत राबिय

ा की कुटिया में पहुंचे। राबिया ने संत का स्वागत किया। उन्होंने अपने हाथ से खाना बनाकर खिलाया। इसके बाद उनके सोने के लिए एक तख्त पर दरी बिछा दी और तकिया रख दिया। स्वयं जमीन पर एक टाट बिछा कर सो गईं। संत को दरी पर नींद नहीं आ रही थी क्योंकि वह मोटे गद्दे पर सोने के आदी थी। लेकिन राबिया को सोते ही गहरी नींद आ गई। संत रात भर करवटें बदलते रहे और सोचते रहे कि राबिया को सख्त जमीन पर नींद कैसे आ गई। सुबह संत ने पूछा,'राबिया, तुमने मुझे तख्त पर दरी बिछा कर सुलाया और स्वयं जमीन पर टाट बिछा कर सो गई फिर भी मुझे रात भर नींद नहीं आई और तुम्हें लेटते ही गहरी नींद आ गई। इसका राज क्या है?'

राबिया बोलीं, 'गुरुदेव, इसमें कोई राज नहीं है। मेरी छोटी कुटिया भी मुझे बड़ी लगती है। एक दरी है, वह लगती है कि सबसे आरामदेह बिछावन है।

मेरी कुटिया में एक वक्त के भोजन की भी सामग्री होती है तो मुझे लगता है कि मैं बहुत भाग्यशाली हूं कि प्रभु ने मुझे भूखा नहीं सोने दिया। जब मैं सोती हूं तो मुझे यह पता नहीं होता कि मेरे पीठ के नीचे गद्दा है या टाट। उस समय मुझे दिन भर के किए गए सत्कर्मों के स्मरण से परम आनंद मिलता है कि मैं अपना सब कुछ भूल कर परम पिता की गोद में सुख पूर्वक सो जाती हूं।'

संत जाने लगे तो राबिया बोली, 'क्या मैं भी आप के साथ चलूं धन इकट्ठा करने?' संत ने कहा, 'तुमने बता दिया कि दुनिया का परम सुख कहां है। अब मुझे आश्रम की जरूरत नहीं है।' वह काशी लौटकर अपने शिष्यों से बोले, 'अब हमें भव्य आश्रम की जरूरत नहीं है। जितना धन इकट्ठा हुआ है उसे गरीबों में बांट दो।' वह स्वयं एक साधारण कुटिया बना कर रहने लगे।

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