आरम्भाव्स्था मे हर पल श्यामाश्याम प्रेम रस मे रत रहते थे। ना किसी की सुधि नही। भावुक जानो ने महाराजजी मे श्री चैतन्य महाप्रभु का भाव देखा। इन्हे चैतन्य महाप्रभु का अवतार माना, जो की ये हैं। इनके नित्य संग से ये बात भी समझ मे आ जाती हैं। उनकी कृपा से ही। पर इनका अवतार तो जगत के कल्याण के लिए हुआ तो..... अब इनको जगादगुरुतम पद से विभूषित किया गया। वास्तव मे इनके जगदगुरु होने के कारन जगदगुरु पद सुशोभित हुआ। एक झलक :- श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणपारावारीण वॆदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्संप्रदायपरमाचार्य भक्तियॊगरसावतार भगवदनन्त श्रीविभूषित कृपा तत्व जगदगुरुत्तम कृपालु महाप्रभु भग्वतप्रेमरसप्रदातास्वामी श्री 1008 जगदगुरु श्री कृपालुजी महाराज इस युग के परमाचार्य है। एवम् इस युग के पन्चम् मूल जगदगुरु है ।काशी विद्वत परिषत् जो की भारत के लगभग 500 शीर्षस्थ,वेदप्रवीण विद्वानो की सभा है, ने महाप्रभु को काशी आने का निमंत्रण दिया। वहॉ महाप्रभु के कठिन संस्कृत में दिये गये विलक्षण प्रवचन को सुनकर एवम् भक्तिरस से ओतप्रोत व्यक्तित्व देखकर सभी विद्वान मन्त्रमुग्ध हो गये। तब सबने एकमत होकर आपश्री को "जगदगुरुतम" की उपाधि से विभूषित किया। उन्होंने स्वीकार किया कि कृपालु जी जगद्गुरुओं में भी सर्वोतम हैं ।...धन्यो मान्य जगद्गुरुतम पदैः सोऽयं समभ्यच्ऱ्यते।यह ऐतिहासिक घटना 14 जनवरी 1957 को हुई। उस समय महाप्रभु मात्र 34 वय के थे। महाप्रभु कि शिक्षाः- 1. प्रत्येक व्यक्ति पूर्णतम पुरुषोतम ब्रह्म् श्रीकृष्ण का नित्यदास हैं। अतः श्रीकृष्ण सुखैक तात्पर्यमयी सेवा ही प्रत्येक प्राणी क एकमात्र लक्ष्य हैं । 2. वह नित्य निष्काम सेवा, श्रीकृष्ण के दिव्य-प्रेम प्राप्त होने पर ही मिलेगी। 3. वह दिव्य-प्रेम, किसी श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ रसिक गुरु की कृपा से ही मिलेगा। 4.वह रसिक गुरु की कृपा, अन्तःकरण की शुद्धि हो जाने पर ही प्राप्त होगी। 5.वह अन्तःकरण शुद्धि, गुरुनिर्दिष्ट साधना भक्ति से ही होगी।
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