कुरुक्षेत्र।। कुरुक्षेत्र का नाम आजकल सूर्यग्रहण के कारण चर्चा में है। लाखों लोग
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सूर्यग्रहण के मौके पर स्नान करने के लिए कुरुक्षेत्र पहुंच चुके हैं।
लेकिन क्या आपको पता है कि कुरुक्षेत्र केवल महाभारत के कारण ही प्रसिद्ध नहीं है, बल्कि कई ऐतिहासिक घटनाओं के कारण भी कुरुक्षेत्र को प्रसिद्धि मिली है। महाराजा कुरु के नाम पर बसे इस शहर में समय-समय पर कई प्रकार की सभ्यता और संस्कृति का जन्म हुआ। सरस्वती नदी को सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा की पुत्री कहा जाता है। यहां पर आदिकाल में नौ नदियां व सात वन थे, जिनमें सरस्वती नदी भी थी। अतीत में ब्रह्म सरोवर का नाम ब्रह्म वेदी और रामहृद भी रहा है। बाद में राजर्षि कुरु के नाम पर कुरुक्षेत्र हुआ। कुरुक्षेत्र का अतीत अत्यंत दिव्य और गौरवमय रहा है। इसी धरती पर ऋषियों ने वेदों की रचना की और ब्रह्मा ने यज्ञ किया तथा सृष्टि की रचना की। यहीं पर महर्षि दधीचि ने इंद्र को अस्थिदान किया था।
कुरुक्षेत्र के ब्रह्म सरोवर में हर साल लाखों लोग पिंडदान व स्नान के लिए यहां आते हैं। लेकिन बहुत कम लोगों को ही पता होगा कि इस सरोवर में पानी कहां से आता है। आदिकाल में ब्रह्म सरोवर व सन्निहित सरोवर में नौ नदियों का जल प्रवाह होता था। लेकिन वक्त के साथ साथ सभी नदियां लुप्त हो गईं या फिर सूख गईं। ऐसे में हरियाणा सरकार ने पवित्र सरोवरों में जल प्रवाह को बनाए रखने के लिए भाखड़ा नहर से जल प्रवाह किया है। भाखड़ा नहर से प्रवाहित हो रहे जल से महत्व और अधिक बढ़ गया है। क्योंकि भाखड़ा नहर में जल गोविंद सागर बांध से आता है और गोविंद सागर बांध में जल मानसरोवर झील से आता है। हिंदू धर्म ग्रथों में मानसरोवर झील को भगवान शिव का स्थान माना गया है। इसलिए यह माना जाता है कि नदियों का पवित्र जल सरोवरों में प्रवाह बंद होने से पवित्र स्नान का महत्व कम नहीं हुआ है, अपितु मानसरोवर झील का जल प्रवाहित होने से और भी अधिक बढ़ा है।
शास्त्रों के अनुसार कुरुक्षेत्र के सरोवरों में स्नान व दान आदि का फल हजारों अश्वमेध यज्ञों के समान माना गया। शास्त्रों के अनुसार सूर्यग्रहण के समय सभी देवता यहां कुरुक्षेत्र में मौजूद होते हैं। ऐसी मान्यता है कि सूर्यग्रहण के अवसर पर ब्रह्मा सरोवर और सन्निहित सरोवर में स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। पुराणों में सूर्यग्रहण के अवसर पर कुरुक्षेत्र तथा चंद्रग्रहण के अवसर पर काशी में किए गए स्नान व दान का विशेष महत्व बताया गया है। श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध में भी महाभारत युग से कई वर्ष पूर्व कुरुक्षेत्र में हुए खग्रास सूर्यग्रहण का वर्णन मिलता है।
इस ग्रहण के अवसर पर भारत के कई प्रदेशों अंग, मगद, वत्स, पांचाल, काशी, कौशल के कई राजा-महाराजा बड़ी संख्या में स्नान करने कुरुक्षेत्र आए थे। द्वारका के दुर्ग को अनिरुद्ध व कृतवर्मा को सौंपकर भगवान श्रीकृष्ण, अक्रूर, वासुदेव, उग्रसेन, गद, प्रद्युम्न, सामव आदि यदुवंशी व उनकी स्त्रियां भी कुरुक्षेत्र स्नान के लिए आई थीं। बृजभूमि से भी बड़ी संख्या में गोप-गोपिकाएं यहां स्नान करने आए थे। गोप-गोपियों से मिलने के बाद भगवान श्रीकृष्ण की कुंती व द्रौपदी सहित पांचों पांडवों से भेंट हुई। द्रौपदी व श्रीकृष्ण का पत्नियों के बीच चर्चा भी श्रीमद्भागवत के इस अध्याय में वर्णित है। इस प्रदर्शनी का आकर्षण उड़ीसा की पट्टचित्र शैली में निर्मित सूर्यग्रहण के अवसर पर श्रीकृष्ण की कुरुक्षेत्र यात्रा को दिखाया गया है। इसके अतिरिक्त सूर्यग्रहण के विभिन्न क्षणों को छायाचित्रों के माध्यम से दिखाया गया है।
मुगलकाल में अकबर द्वारा हिंदुओं पर लगने वाले जजिया कर को हटाया गया। अकबर खुद 1567 के सूर्यग्रहण के अवसर पर कुरुक्षेत्र आया था। इस अवसर पर ग्रहण के निमित्त दान के बंटवारे को लेकर जब जोगियों व संन्यासियों के बीच झगड़ा शुरु हुआ तो अकबर ने इसे शांत करने की कोशिश की। लेकिन दोनों पक्षों में समझौता न हो सका। इस पर दोनों में लड़ाई छिड़ गई। अकबर ने संन्यासियों की अल्प संख्या देखते हुए अपने कुछ सैनिकों को संन्यासियों के पक्ष में युद्ध करने भेज दिया। इस युद्ध में जोगियों के महंत आनंद कुर मारे गए। यहां का आकाश अंतिम चक्रवर्ती हिंदू सम्राट हर्षवर्धन के जयघोषों से गूंजा था।
1850 में थानेसर के तत्कालीन जिलाधीश लरकिन ने इस तीर्थ को खुदवाकर इसका पुन: निर्माण करवाया था। लेकिन तीर्थ को वर्तमान स्वरूप देने का पूर्ण श्रेय भारत रत्न स्व. गुलजारी लाल नन्दा को है। उनकी प्रेरणा से 1968 में कुरुक्षेत्र विकास मंडल का गठन किया गया।
Hare Krishna !!
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